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भिक्षुक / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

वह आता-- दो टूक कलेजे को करता, पछताता  पथ पर आता। पेट पीठ दोनों मिलकर हैं एक, चल रहा लकुटिया टेक, मुट्ठी भर दाने को — भूख मिटाने को मुँह फटी पुरानी झोली का फैलाता — दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता। साथ दो बच्चे भी हैं सदा हाथ फैलाए, बाएँ से वे मलते हुए पेट को चलते, और दाहिना दया दृष्टि-पाने की ओर बढ़ाए। भूख से सूख ओठ जब जाते दाता-भाग्य विधाता से क्या पाते? घूँट आँसुओं के पीकर रह जाते। चाट रहे जूठी पत्तल वे सभी सड़क पर खड़े हुए, और झपट लेने को उनसे कुत्ते भी हैं अड़े हुए ! ठहरो ! अहो मेरे हृदय में है अमृत, मैं सींच दूँगा अभिमन्यु जैसे हो सकोगे तुम तुम्हारे दुख मैं अपने हृदय में खींच लूँगा।

लालच का फल

किसी गांव में एक किसान रहता था. रात-दिन मेहनत कर वह खुब पैसा कमाना चाहता था लेकिन था लालची व कंजूस इसलिए खर्च कुछ भी नहीं करता था, जब भी उसका मांसाहार खाने का मन करता वह जंगल से कोई जीव मार लाता और पका कर खा लेता. एक दिन वह जंगल से एक सुनहरी मूर्गी को पकड़ कर घर ले आया. उसकी पत्नी मूर्गी देखकर बेहद खुश हुई क्योंकि पति की तरह ही वह भी लालची थी. वह तुरन्त ही चाकू लेकर मूर्गी को हलाल करने बैठ गई. इससे पहले की वह मूर्गी की गर्दन पर चाकू चला पाती मूर्गी ने कहा – मुझे मत मारो मैं तुम्हें मालामाल कर दूंगी. मूर्गी को इंसानी भाषा में बोलते देखकर किसान की पत्नी डर गई और उसने चिल्लाकर अपने पति को बुलाया. सुनो जी,, यह तो कोई मायावी मुर्गी हैं, यह तो हमारी तरह बोलती है, क्या कहा भगवान ? किसान चोंक पडा, मनुष्य की तरह बोलती है ? हां यह कहती हैं कि “हमें मालामाल कर देगी”. ला मैं इसे काटू शायद यह अपनी जान बचाने के लिए ऐसा कर रही है. जैसे ही किसान मुर्गी को काटने चला वैसे ही मुर्गी ने फिर से कहा – अरे ओ मूर्ख किसान! मेरी बात सुन मूर्गी ने हिम्मत बटोर कर कहा – मेरी जान बक्श दें मैं तुझे मालामाल कर द

हाथी क्यों हारा

एक बार एक व्यक्ति, एक हाथी को रस्सी से बांध कर ले जा रहा था | एक दूसरा व्यक्ति इसे देख रहा था | उसे बढ़ा आश्चर्य हुआ की इतना बढ़ जानवर इस हलकी से रस्सी से बंधा जा रहा है दूसरे व्यक्ति ने हाथी के मालिक से पूछा ” यह कैसे संभव है की इतना बढ़ा जानवर एक हलकी सी रस्सी को नहीं तोड़ पा रहा और तुम्हरे पीछे पीछे चल रहा है| हाथी के मालिक ने बताया जब ये हाथी छोटे होते हैं तो इन्हें रस्सी से बांध दिया जाता है उस समय यह कोशिश करते है रस्सी तोड़ने की पर उसे तोड़ नहीं पाते | बार बार कोशिश करने पर भी यह उस रस्सी को नहीं तोड़ पाते तो हाथी सोच लेते है की वह इस रस्सी को नही तोड़ सकते और बढे होने पर कोशिश करना ही छोड़ देते है 

सत्तावन का युद्ध

सत्तावन का युद्ध खून से लिखी गई कहानी थी  वृद्ध युवा महिलाओं तक में आई नई जवानी थी आज़ादी के परवानों ने मर मिटने की ठानी थी ! क्रांति संदेशे बाँट रहे थे छदम वेश में वीर -जवान नीचे सब बारूद बिछी थी ऊपर हरा भरा उद्यान  मई अंत में क्रांतिवीर को भूस में आग लगानी थी ! मंगल पांडे की बलि ने संयम का प्याला तोड़ दिया जगह-जगह चिंगारी फूटी तोपों का मुँह मोड़ दिया कलकत्ता से अंबाला तक फूटी नई जवानी थी ! मेरठ कानपुर में तांडव धू-धू जले फिरंगी घर नर-मुंडों से पटे रास्ते  गूँजे 'जय भारत' के स्वर दिल्ली को लेने की अब इन रणवीरों ने ठानी थी ! तलवारों ने तोपें छीनी प्यादों ने घोड़ों की रास नंगे-भूखे भगे फिरंगी जंगल में छिपने की आस झाँसी में रणचंडी ने भी  अपनी भृकुटी तानी थी ! काशी इलाहाबाद अयोध्या में रनभेरी गूँजी थी फर्रूखाबाद, इटावा तक में यह चिंगारी फूटी थी गंगा-यमुना लाल हो गई इतनी क्रुद्ध भवानी थी ! आज़ादी की जली मशालें नगर, गाँव, गलियारों में कलकत्ता से कानपुर तक गोली चली बाज़ारों में तांत्या, बाजीराव, कुंवर की धाक शत्रु ने मानी थी !

chubby snowman

There was a chubby snowman And he had a carrot nose (put fist to nose like carrot) Along came a bunny (2 fingers up for ears) And what do you suppose (hands on hips) The hungry little bunny (rub tummy) Was looking for his lunch (hand to forehead, looking) He grabbed that snowman's carrot nose NIBBLE!  NIBBLE!  CRUNCH!! (Pretend to eat carrot)

कंकड चुनचुन

कंकड चुनचुन महल उठाया          लोग कहें घर मेरा।  ना घर मेरा ना घर तेरा          चिड़िया रैन बसेरा है॥ जग में राम भजा सो जीता ।         कब सेवरी कासी को धाई  कब पढ़ि आई गीता ।          जूठे फल सेवरी के खाये   तनिक लाज नहिं कीता ॥

मेरे उर में जो निहित व्यथा

मेरे उर में जो निहित व्यथा  कविता तो उसकी एक कथा छंदों में रो-गाकर ही मैं, क्षण-भर को कुछ सुख पा जाता मैं सूने में मन बहलाता। मिटने का है अधिकार मुझे है स्मृतियों से ही प्यार मुझे उनके ही बल पर मैं अपने, खोए प्रीतम को पा जाता मैं सूने में मन बहलाता। कहता क्या हूँ, कुछ होश नहीं  मुझको केवल संतोष यही  मेरे गायन-रोदन में जग, निज सुख-दुख की छाया पाता  मैं सूने में मन बहलाता।